छींट यानी एक विशेष प्रकार का सूती कपड़ा जो कभी लोकसंस्कृति व लोकजीवन का पर्याय रहा था. सदियों सदियों तक भारत की छींट दुनिया भर में प्रसिद्ध रही. थार के लोकजीवन से तो इसका नाता कुछ अधिक ही गहरा था. पर बदलते वक्त के साथ यह सूती कपड़ा आम जन का पहनावा नहीं कुछ लोगों का शगल बनकर रह गया है. ढोल मंजीरों की गूंज के साथ छींट के नजारे भी गायब से हो रहे हैं.
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किसी जमाने में छींट का प्रचलन लगभग पूरे भारत में था. यह सांस्कृतिक विविधिताओं वाले समाज में ‘सर्वग्राह्यता’ की मिसाल थी और कई कारणों से राजस्थान की मरूभूमि के लोकजीवन में इसे ज्यादा ही महत्व मिला. प्रेम, सौंदर्य व वीरता के साथ धोरों की यह धरा अपनी छींट व बंधेज के काम के कारण भी चर्चित रही है. तपते रेगिस्तानी वातावरण में लोगों को तन ढकने के लिए छींट जैसे ठंडी तासीर वाले कपड़े की दरकार थी. तीखी धूप व दूसरे वातावरणीय दुष्प्रभावों से बचाव में उपयोगी होने के कारण छींट का प्रचलन बढना स्वाभाविक था. कपड़ा खुसता नहीं और धोने के लिए साबुन या पाऊडर की जरूरत नहीं. गृहिणियां छींट को राख या रीठे से आसानी से धो लेतीं. सस्ती भी इतनी कि नये कपड़े की खरीद किसी को भारी न लगे. सबसे बड़ी बात कि यह मानव स्वास्थ्य के अनुकूल थी. धूप से त्वचा का बचाव करती तथा भीषण गर्मी तपन में रोमकूपों तक हवा की आवाजाही को सुगम बनाती.
इन्हीं तमाम विशेषताओं के कारण छींट का कपड़ा लोकप्रिय होता गया. इसकी रंगाई शुरू में गांवों में छींपा लोग ही कर लेते थे. मशीनी युग में इसकी लोकप्रियता चरम पर पहुंची. बुजुर्गवार आज भी राधिका प्रिंट वाली छींट को याद करते हैं. अहमदाबाद में तैयार यह कपड़ा जनमानस में इस तरह से रचा बसा कि कुछ ही दिनों में छींट व राधिका प्रिंट एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए. थाली व बूंदी की छींट भी कम लोकप्रिय नहीं रही. मुलतानी व सांगानेरी छींट के घाघरे वर्षों तक महिलाओं के व्यक्तित्व को नया आयाम देते रहे. हल्के रंग वाली बारीक बूंटियां बगरू/ सांगानेरी छींट की विशेषता रही; हाड़ौती अंचल तो आज भी छींट की छपाई के लिए ही जाना जाता है.
हर रंग व डिजाइन तथा न्यूनतम दाम में मिलने वाली छींट प्रत्येक तबके के लोगों के लिए पहली पसंद रही. अस्सी कळी (लगभग 22 मीटर) के घाघरे हों या दस गज की चीणदार अंगरखी, एक समय छींट रोटी में नूण की तरह जनजीवन में रच बस गई.
अब जमाना डेनिम, नॉन डेनिम, रोये, लिजीविजी, पॉपलीन, काटनफील, जार्जेट, सेंचुरी, स्पन तथा ट्विल प्रिंट का है. चल निकले हैं और छींट इस दौड़ में कहीं पीछे छूट गई है. कई मायनों में छींट के विकल्प के रूप में सामने आया कॉटनप्रिंट भी महंगा होने के कारण चल नहीं पाया. वक्त के साथ वे लचकदार कमर भी नहीं रहीं जो जो अस्सी कळी के ‘भारी’ घाघरों लहरियों के साथ नजाकत से चल सकें.
थार में छींट को केंद्र में रखते हुए अनेक लोकगीत हैं जिनमें से ‘ढोला ढोल मजीरा बाजै रे काली छींट गो घाघरो निजारा बाजै रे’ तो आज भी खूब बजता है. वस्त्रों को लेकर ‘ म्हारो अस्सी कळी को घाघरो .. ’ तथा ‘छैल भंवर जी थानै मंगास्यू छापो सांगानेर गो..’ जैसे गीत भी अनूठे हैं.
कहां से आई छींट भारत में बनने वाले सूती कपड़ों में छींट ही सबसे प्रसिद्ध मानी गई है. यूरोप में इसे चिंट्स कहा जाता है. मसूलीपत्तनम की छींट सबसे प्रसिद्ध थी. कहते हैं कि यह कला ईरान से भारत में आई और ईरान की चिंट भारत में छींट हो गई. यूरोप को भी इसे इसी नाम से जानते हैं. छींट (Chhintz), गत (Blotch), बँधनी (Tie Dyeing) और बातिक (Batik) आदि शब्द वस्तुत: छपाई की प्रक्रिया के सूचक हैं. छींट और गत की छपाई यंत्रों से की जाती है. छींट में रंगीन भूमि कम ओर गत में लगभग सभी वस्त्र रंगचित्रों से ढका होता है. छींट की छपाई में ही अधिकाधिक उत्पादन कम खर्च में लिया जा सकता है. इसके भारत में लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण इसे भी माना जा सकता है. छींट शब्द की उत्पत्ति को लेकर अलग अलग बात की जाती है. किसी का कहना है कि छींट संस्कृत के क्षिप्त से बना है. वैसे लोकजीवन में छींटा देना, छींटे यानी छोटी बूंदें, छींटे मारना यानी बिखरा देना जैसे शब्द खूब प्रचलित है. ऐसे में लगता तो यही है कि छींट शब्द भारत से बाहर फैला.
Sunday, August 29, 2010
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